बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
तीन
राम जल्दी-जल्दी पग बढ़ाते हुए, आश्रम की ओर लौट रहे थे। आज उन्हें आशा से अधिक विलंब हो गया था। जब विवाद छिड़ जाए, तो उसका निर्णय किए बिना तो नहीं उठा जा सकता। क्या करते, वहां विषय ही ऐसा उठ खड़ा हुआ था। फिर मार्ग में उल्लास और उसकी पत्नी मणि को भी देखना था। बेचारे अभी तक अपने मृत बालक का शोक भुला नहीं पाए थे, कि दूसरा बालक भी अस्वस्थ हो गया। वे दोनों ही बहुत चिंतित थे। लगता है, राजप्रासाद के विलासी जीवन के पश्चात् अभी वे वनवासी जीवन के अभ्यस्त नहीं हो पाए थे। और फिर शूर्पणखा की क्रूरता का आतंक अभी तक उनका पीछा कर रहा है।
सहसा वे रुक गए। चार-पांच पगों की दूरी पर खड़ी शूर्पणखा अत्यंत शालीनता से प्रणाम कर रही थी।
राम ने देखा-अद्भुत शोभा-श्रृंगार था। ऐसा श्रृंगार तो किसी अत्यंत समृद्ध, सम्पन्न और विलासप्रिय राज्य की राजकुमारी ही कर सकती थी। इस वन में ऐसे वस्त्राभूषण, श्रृंगार और रूप का क्या काम?
''तुम कौन हो, देवि!''
''मैं कामवल्ली हूं।'' राम के कान नाम पर अटके और नयन शूर्पणखा की आंखों में दामिनी-सी ऐंठती वासना पर। किसने इस युवती का ऐसा श्रृंगारिक नाम रखा है? ऐसा नाम व्यावसायिक कारणों से, किसी गणिका का हो सकता है या किसी अबोध व्यक्ति की मूर्खता का परिणाम। कोई समझदार माता-पिता अपनी कन्या को ऐसी संज्ञा प्रदान नहीं कर सकते, किंतु यह क्या इसका वास्तविक नाम है? आंखों की वासना और आमंत्रण क्या इस निर्लज्ज का आत्मनिवेदन मात्र नहीं।
''इस सघन वन में किस प्रयोजन से आयी हो देवि?'' राम ने शांत स्वर में पूछा, ''यह तुम जैसी सुंदरी के एकाकी भ्रमण के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है।''
''प्रताड़ित हूं राम!'' शूर्पणखा ने अपनी आत्मा की समस्त मादकता अपनी आंखों और अधरों में उड़ेलने का प्रयत्न किया, ''तुम्हारी शरण में आयी हूं। तुम रक्षा नहीं करोगे, तो मेरे प्राण चले जाएंगे।''
राम के मन में आया, उसे फटकार दें-ऐसा श्रृंगार प्रताड़ितों का नहीं होता। नाटक की नटियां भी इतना श्रृंगार नहीं करतीं। किसी प्रकार के कष्ट अथवा आशंका का एक कण भी इस सारे व्यक्तित्व में राम को दिखाई नहीं पड़ रहा था।...फिर भी उन्होंने धैर्यपूर्वक पूछा, ''घूम पर कैसा संकट है, देवि!''
''संकट मेरे प्राणों पर है, राम!'' शूर्पणखा ने चंचल मुस्कान के साथ कहा।
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